२३ अक्तूबर, १९५७

 

श्रीमां 'दिव्य जीवन' के अंतिम छ: अध्यायों-

को पढ़ना शुरू करती है !

 

 ''एक आध्यात्मिक विकास ही, अर्थात्, 'जड़-तत्व' में चेतनाका ऐसा विकास कि वह अपने रूपोंको इस प्रकार निरंतर विकसित करती चले कि अंतमें वह रूप अंदर रहनेवाली आत्मा'को प्रकट कर सके, यही तब पार्थिव जीवनका मुख्य स्वर, उसका केंद्रीय अर्थपूर्ण हेतु है । यह अर्थ आरंभ में 'आत्माके, दिव्य सद्वस्तुके, सघन भौतिक 'निश्चेतना' मे अंतर्लीन होनेके कारण छिपा रहता है; 'अचेतना'का आवरण, 'जड-तत्त्की असंवेदनशीलताका आवरण, अपने भीतर कार्य करनेवाली वैश्व चित्-शक्तिो छिपाये रहता 'है, फलतः, 'ऊर्जा', जो सर्जक 'शक्ति' का भौतिक 'विश्व' मे धारण किया गया पहला रूप है, अपने-आपमें अचेतन प्रतीत होती है, पर तब भी एक विशाल गुह्य 'प्रज्ञा' के कार्य करती है ।

 

('लाइफ डिवाइन', पृ ० ८२४)

 

मधुर मां, मेरी समझमें नहीं आया कि 'चित्-शक्ति' क्या श्री, अतः मैं कुछ भी न समझ सका!

 

 समझने लायक पहली चीज ठीक यह पहला वाक्य है जो एक तथ्यको, विश्व जीवनके मूलतत्व और उसके अस्तित्वके हेतुको बतलाता है । क्या तुम नहीं देखते कि हम इस खण्डके अंतसे शुरू कर रहे है, ये अंतिम छ: अध्याय है । पुस्तकके सारे प्रारंभिक भागमें श्रीअरविंद विश्व और जीवनके कैसे और क्यों समझानेवाले सभी सिद्धातोंको एकके बाद एक लेते है । वे उन्हें उनकी अंतिम सीमातक ले जाते है ताकि यह बता सकें कि उनका अर्थ क्या था, अन्तमें उन्होंने दिखाया है कि वे कहातक अधूरे और अपूर्ण थे, ओर उन्होंनें सच्चा समाधान दिया है । वह सब तो मानों हमारे पढ्नेके पहले ही समाप्त हों चुका । उस सारेमेंसे गुजरनेके लिये तो हमें लगभग दस वर्ष लग जाते! और उसे किसी लाभदायक ढंगसे समझनेके लिये तुम्हें बहुत प्रकारके ज्ञान, और बहुत अधिक बौद्धिक विकासकी जरूरत होती ।

 

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लेकिन हम वहांसे शुरू कर रहे हैं जहां उन्होंने पूरे बौद्धिक तरीकेसे बताया है कि जीवनके अस्तित्वका हेतु क्या था । वे इसे इस तरह सूत्रमें कहते है : ' 'पार्थिव जीवनका केंद्रीय सार्थक हेतु... '' । क्योंकि उन्हें सारे विश्वसे मतलब नहीं है । उन्होंनें हमारे पार्थिव जीवनको ही लिया है, सारे विश्वके अस्तित्वके हेतुक प्रतीकात्मक घन प्रतिनिधिके रूपमें लिया है । वास्तवमें कई पुरानी परंपराओंके अनुसार धरती, गहरे आध्यात्मिक दृष्टिकोणसे, विश्वके प्रतीकात्मक केंद्रके रूपमें बनी है ताकि रूपांतरका काम ज्यादा आसानीके साथ, एक सीमित, धन ' 'देश' ' ( यूं कहा जा. सकता है) मे किया जा सके जहां समस्याके सभी तत्व घने रूपमें इकट्ठे हों ताकि क्रिया ज्यादा समग्र और प्रभावशाली हा सके । इसलिये यहां श्रीअरविंद केवल पार्थिव जीवन- की बात करते हैं । लेकिन हम समझ सकते है कि यह एक प्रतीकात्मक जीवन है, यानी यह वैश्व क्रियाका प्रतिनिधि है । यह प्रतीकात्मक, थन प्रतिरूप है । और वे कहते है कि ' 'केंद्रीय हेतु'' यानी, पार्थिव जीवनके अस्तित्वका हेतु 'जडू-तत्व'के केंद्रमें छिपी हुई 'आत्मा ' को -- जो अंदरसे बाहरकी ओर एक क्रमश: बढ़ते हुए विकासकी ओर धकेलती है, जगाना, अंतिम रूपसे प्रकट करना और समग्र रूपमें अभिव्यक्त करना है ।

 

          तो, बाहरी रूपोंमें जैसा तुम देखते हो पहले-पहल खनिज जगत् मिलता है जिसमें पत्थर, मिट्टी, धातुएं आती हैं जो हमारी बाहरी चेतनाको बिल- कुल निश्चेतन दिखती है । फिर भी इस निश्चेतनाके पीछे 'आत्माका प्राण है, 'आत्मा' की चेतना है जो पूरी तरह छिपी हुई है मानों सोयी हुई हो (यद्यपि यह केवल बाहरी रंगरूप है) । यह देखनेमें बिलकुल बेजान लगनेवाले जडतत्वको धीरे-धीरे,. अंदरसे रूपांतरित करनेके लिये काम करती है, ताकि उसका संगठन अपने-आपको चेतनाकी अभिव्यक्तिके लिये अनुकूल बना सके । और वे कहते है कि पहले-पहल जड-पदार्थका यह परदा इतना संपूर्ण होता है कि ऊपरी दृष्टिसे यही लगता है कि इसमें न तो प्राण है, न चेतना । तुम एक पत्थरको उठाकर सामान्य दृष्टिसे ओर चेतनासे देखो तो कहोगे : ' 'इसमें जान नहीं है, इसमें चेतना नहीं है । '' लेकिन जो बाहरी रंगरूपके पीछे देखना जानता है उसके लिये इस पदार्थ- के केंद्रमें - पदार्थके प्रत्येक अणुमें परम दिव्य सद्वस्तु छिपी हुई है जो अंदरसे, धीरे-धीरे, युगोंसे इस जड-पदार्थका किसी ऐसी चीजमें बदलनेमें लेगी है जों अंदरकी 'आत्मा' को अभिव्यक्त करनेके लिये काफी व्यंजक होगी । तब 'जीवन' की कहानीका अनुक्रम आगे बढ़ता है : कैसे पत्थरसे, उसकी विभिन्न जातियोमेसे होते हुए अचानक प्रारंभिक प्राण फूट पड़ा और उसीके साथ एक प्रकारका संगठन, यानी एक जैव तत्व जो प्राणको

 

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प्रकट करनेमें सक्षम है । लेकिन खनिज और वनस्पति जगतोंके बीच अंतर्वर्ती तत्व है । पता नहीं चलता कि वे खनिजके अंश है या उनसे वनस्पतिका प्रारंभ हों चुका है (विस्तारसे उनका अध्ययन करनेपर अजीब- सी जातियां दिखायी देती है जो न यहांकी है, न वहांकी, जो पूरी तरह यहांकी नहीं हैं और अभीतक वहांकी भी नहीं हो पायी) । तब वनस्पति- जगत्का विकास शुरू होता है जहां स्वभावत: प्राण प्रकट होता है क्योंकि यहां वृद्धि है, रूपांतरण है -- पौधेमें अंकुर फूटते है, वह बढ़ता और विकसित होता है -- जीवनके प्रथम तथ्यके माथ-ही-साथ सड़न और विघटनका तथ्य भी आता है जो पत्थरकी अपेक्षा यहां बहुत तेज होता है । अगर पत्थरको अन्य शक्तियोंके आघातोंसे बचाया जाय तो वह, हमें लगता है, अनिश्चित कालतक रह सकता है । जब कि वनस्पति वृद्धि, चढ़ाव, उतार और सड़नके चक्रका अनुसरण शुरू कर देती है - लेकिन यह सब बहुत ही सीमित चेतनाके साथ । जिन्होंने विस्तारपूर्वक वनस्पति-जगत्का अध्ययन किया है वे भली-भांति जानते है कि उनमें चेतना होती है । उदाहरणके लिये, वनस्पतिको जीनेके लिये सूर्यकी जरूरत होती है (सूर्य उन्हें वह ऊर्जा देता है जिससे उनकी वृद्धि होती है), तो, अगर तुम किसी पौधेंको ऐसी जगह रख दो जहां धूप नहीं आती तो तुम उसे हमेशा धूपतक पहुंचने- के लिये चढ़ते, चढ़ते, चढ़ते हुए, कोशिश करते हुए प्रयास करते हुए देखोगे । उदाहरणके लिये, घने जंगलमें जहां मनुष्य हस्तक्षेप नहीं करता सभी पौधोंमें इस प्रकारका संघर्ष होता है जो एक-न-एक तरहसे धूपको पकड़नेके लिये सीधे चढ़नेका प्रयास करते हैं । यह बड़ा मनोरंजक है । लेकिन अगर तुम कोई गमला दीवारोंसे घिरे. छोटे-से आगनमें रख दो, जहां धूप नहीं आती, ता' जो पौधा प्रायः इतना ऊंचा है (संकेत) इतना ऊंचा हो जाता है : वह धूप पानेके लिये प्रयास करते हुए अपने-आपको लंबा खींचता है । फलस्वरूप एक चेतना होती है, जीनेका संकल्प होता है जो अभिव्यक्त हों चुकता है । और फिर थोडा-थोडा करके जातियोंमें अधिकाधिक विकास होता जाता है । और तुम फिरसे एक ऐसी बीचकी स्थिति देखते हा, जो, अभी पशु तो नही है, पर अब वनस्पति भी नहीं रही । ऐसी बहुत-सी जातियां है जो बहुत मनोरंजक है । ऐसे पौधे है जो मांसाहारी हैं । खुले मुंह जैसे पौधे होते है, तुम- उसमें एक मक्खी डालों और, गड़प,  निगलन जाते हैं । ये अब ठीक पौधे नहीं है, पर अभीतक पशु भी नहीं बने । इस तरहके बहुत- सें पौधे है ।

 

         तथ्य- तुम पशुतक आते हों । पहले जानवरों और पौधोंमें फर्क करना कठिन है । उनमें चेतना नहींके बराबर होती है । फिर तुम जानवरोकी

 

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सभी जातियोंको देखो । तुम उन्हें जानते हों, जानते हों न? उच्चतर पशु जातियां, वास्तवमें बहुत सचेतन होती है । उनकी अपनी स्वतंत्र इच्छा- शक्ति होती है । वे बहुत सचेतन और अद्भुत रूपसे बुद्धिमान होते हैं, उदाहरणके लिये, हाथी । तुम हाथी और उसकी अद्भुत बुद्धिकी बहुत सारी कहानियां जानते हो । फलस्वरूप यहां मन काफी स्पष्ट रूपसे दिखायी देता है । और इस क्रमिक विकासमेंसे हाते हुए हम अचानक उस जातिपर जा पहुंचते है जो शायद गायब हो गयी है (जिसके कुछ अवशेष मिले है), यह बन्दरके जैसी या उसी फुलकी मध्यवर्ती जाति रही होगी । भले वह ठीक बन्दरन हो जिसे हम जानते है, पर उसके जैसी जाति -- एक ऐसा पशु जो दो पैरोंपर चलता था । और वहांसे हम आदमीतक आ पहुंचते हैं । मनुष्यके विकासका एक पूरा प्रारम्भ है । यह तो नहीं कहा जा सकता कि उसमें बहुत बुद्धिमत्ता दिखायी देती है, लेकिन उसमें मनकी क्रिया शुरू हो चुकती है, स्वाधीनताका आरंभ, परिस्थितियों और प्रकृतिकी शक्तियोंके प्रति स्वतंत्र प्रतिक्रियाका आरंभ । इस तरह मनुष्यमें पूरा सप्तक है जिसके शिखरपर है वह व्यक्ति जो आध्यात्मिक जीवनके योग्य हो ।

 

         इस पृष्ठपर श्रीअरविन्द हमसे यही कहते है ।

        बस इतना है, तुम्हें कोई प्रश्न पूछना हो तो...?

 

 मधुर मां, यहां ३ कहते हैं, ''यह चेतना... मनुष्यमें अपने चरमोत्कर्षतक पहुंचती है और उसे पार कर जाती है... ''

 

हां, यही तो मैंने तुमसे अभी-अभी कहा है । अपनी उच्चतम अवस्थामें मनुष्य प्रकृतिसे बिलकुल स्वतंत्र होने लगता है -- ' 'बिलकुल' ' तो जरा अतिशयोक्ति है । वह बिलकुल स्वतंत्र हो जरूर सकता है । जिसने आध्या त्मिक चेतना उपलब्ध कर ली, जिसका भागवत मूलस्रोतके साथ सीधा सम्बन्ध है वह प्रट्टातिसे, प्रकृतिकी शक्तियोंसे शब्दशः स्वतंत्र है ।

 

( वर्षा शुरू हों जाती है) यह लो, यह हमें शान्त करनेके लिये है! (हंसी) ओर इसीको वे ' 'अपने-आपको पार कर जाना' ' कहते हैं । यानी, वह ' सत्ता ', आन्तरिक भागवत चेतना, वह परम आध्यात्मिक सद्वस्तु अपने विकासके प्रयासमें... ( वर्षा जोर पकडू लेती है)... ओहो! हमें चुप रहना पड़े गा ।... अपने-आपको अभिव्यक्त करनेके सचेतन माध्यमकी विकसित करनेकी रवोजमें इ स योग्य हों गयी है कि प्रकृतिकी सभी प्रक्रियाओंमेंसे गुजरे बिना सीधा सम्पर्क स्थापित कर सकें ।

 

अब, मेरा ख्याल है हमें बन्द करना होगा । ध्यान नहीं होगा क्योंकि.

 

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